संविधान की प्रस्तावना बदली नहीं जा सकती, लेकिन आपातकाल में…’ — होसबले के बयान पर उठे विवाद के बीच उपराष्ट्रपति Jagdeep Dhankhar की प्रतिक्रिया

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Jagdeep Dhankhar हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले के एक बयान ने भारतीय राजनीतिक और संवैधानिक गलियारों में गर्म बहस छेड़ दी है। होसबले ने कहा कि “संविधान की प्रस्तावना बदली नहीं जा सकती, लेकिन आपातकाल में ऐसा हुआ था।” उनके इस बयान को लेकर राजनीतिक दलों, विशेषज्ञों और आम जनता के बीच तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। इस विवाद के बीच भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपनी प्रतिक्रिया देकर बहस को और धार दे दी है।

इस लेख में हम इस पूरे प्रकरण की पृष्ठभूमि, विवाद के कारण, होसबले के बयान की व्याख्या, उपराष्ट्रपति की प्रतिक्रिया और इससे जुड़े संवैधानिक पहलुओं का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।

होसबले का बयान: क्या कहा गया?: Jagdeep Dhankhar

बयान का सारांश

दत्तात्रेय होसबले ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि:

“संविधान की प्रस्तावना बदली नहीं जा सकती, लेकिन इमरजेंसी के दौरान उसमें परिवर्तन किया गया था। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि जब देश आपातकाल की स्थिति में था, तब प्रस्तावना में कुछ शब्द जोड़े गए थे।”

बदलाव की बात

होसबले जिस परिवर्तन की बात कर रहे थे, वह 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम (42nd Amendment Act, 1976) के तहत किया गया था। इस संशोधन के तहत प्रस्तावना में तीन नए शब्द जोड़े गए:

  • समाजवादी (Socialist)
  • धर्मनिरपेक्ष (Secular)
  • राष्ट्रीय एकता और अखंडता (Unity and Integrity of the Nation)

इन परिवर्तनों को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल (1975–77) के दौरान लागू किया था।

विवाद क्यों खड़ा हुआ?

संवेदनशील मुद्दा

संविधान की प्रस्तावना भारतीय लोकतंत्र का मूल स्तंभ मानी जाती है। इसमें उल्लेखित आदर्श जैसे न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व — हमारे संविधान के मूल मूल्य हैं। ऐसे में किसी भी प्रकार की टिप्पणी जो प्रस्तावना की अपरिवर्तनीयता को चुनौती दे, संवेदनशील और विवादास्पद बन जाती है।

राजनीतिक प्रतिक्रियाएं

  • कांग्रेस पार्टी और अन्य विपक्षी दलों ने होसबले के बयान को संविधान विरोधी करार दिया।
  • भाजपा ने इसे ऐतिहासिक सत्य कहकर बचाव किया, लेकिन आलोचना को पूरी तरह खारिज नहीं किया।
  • कई संवैधानिक विशेषज्ञों ने इस बयान को भ्रामक बताते हुए कहा कि संविधान में संशोधन का प्रावधान है, लेकिन प्रस्तावना जैसे मूल तत्वों को बदलना बेहद कठिन है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की प्रतिक्रिया

धनखड़ का बयान

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस विवाद के बीच एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा:

“संविधान की प्रस्तावना हमारे लोकतंत्र की आत्मा है। इसके मूल स्वरूप को बदला नहीं जा सकता। हालांकि, इतिहास में कुछ परिवर्तन हुए हैं जो आपातकाल की पृष्ठभूमि में हुए। यह हमें यह सिखाते हैं कि लोकतंत्र की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।”

क्या संकेत दिए धनखड़ ने?

धनखड़ ने सीधे तौर पर होसबले का नाम नहीं लिया, लेकिन उनका बयान स्पष्ट रूप से होसबले की टिप्पणी के संदर्भ में था। उन्होंने संविधान के मूल ढांचे (basic structure) की सिद्धांत की ओर इशारा किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ (1973) के ऐतिहासिक फैसले में स्थापित किया था।

संतुलित दृष्टिकोण

धनखड़ का बयान संतुलन साधने की कोशिश करता दिखा — न तो उन्होंने होसबले की आलोचना की और न ही उनका समर्थन। लेकिन यह स्पष्ट किया कि प्रस्तावना संविधान की आत्मा है और इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।

प्रस्तावना में बदलाव: संवैधानिक दृष्टिकोण

क्या प्रस्तावना बदली जा सकती है?

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है, लेकिन केवल उसी स्थिति में जब वह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित न करे। सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती केस में यह सिद्धांत स्थापित किया कि संविधान का मूल ढांचा नहीं बदला जा सकता।

अब तक का एकमात्र बदलाव

1976 का 42वां संशोधन प्रस्तावना में अब तक का एकमात्र परिवर्तन है। इसने तीन शब्द जोड़े, लेकिन प्रस्तावना की मूल भावना को नहीं बदला गया — ऐसा तर्क उस समय की सरकार ने दिया था।

राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव

वैचारिक ध्रुवीकरण

इस बयान और प्रतिक्रिया ने वैचारिक बहस को फिर से जिंदा कर दिया है — खासकर संविधान की व्याख्या को लेकर दक्षिणपंथी और वामपंथी दृष्टिकोणों में।

युवाओं में संवैधानिक जागरूकता

इस विवाद ने संविधान, प्रस्तावना और आपातकालीन काल की घटनाओं पर युवाओं के बीच रुचि बढ़ाई है। सोशल मीडिया पर हजारों पोस्ट, रील्स और डिबेट देखने को मिले हैं।

भविष्य में क्या?

इस तरह के बयान भारत के लोकतंत्र और संविधान को लेकर जारी बहस का हिस्सा बनते रहेंगे। परंतु, यह आवश्यक है कि सभी पक्ष संविधानिक मर्यादाओं और तथ्यों का सम्मान करें।

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निष्कर्ष

होसबले का बयान ऐतिहासिक तथ्यों के संदर्भ में दिया गया था, लेकिन संवैधानिक और राजनीतिक दृष्टि से यह अत्यंत संवेदनशील बन गया। उपराष्ट्रपति धनखड़ की प्रतिक्रिया ने इस बहस को संतुलित दृष्टिकोण से देखने का मार्ग प्रशस्त किया है। यह प्रकरण हमें यह याद दिलाता है कि संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र की आत्मा है। इसका सम्मान और उसकी रक्षा प्रत्येक भारतीय नागरिक की जिम्मेदारी है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

1. क्या संविधान की प्रस्तावना बदली जा सकती है?

हाँ, संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है, लेकिन वह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित नहीं कर सकता।

2. 42वां संविधान संशोधन क्या था?

1976 में लागू हुआ यह संशोधन प्रस्तावना में “समाजवादी”, “धर्मनिरपेक्ष” और “राष्ट्रीय एकता और अखंडता” जैसे शब्द जोड़ता है। यह इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल के दौरान लाया गया था।

3. उपराष्ट्रपति धनखड़ का बयान किस बारे में था?

धनखड़ ने संविधान की प्रस्तावना को लोकतंत्र की आत्मा बताया और कहा कि इसे बदलना संभव नहीं है, परंतु इतिहास में कुछ परिवर्तन आपातकाल के दौरान हुए हैं।

4. प्रस्तावना में बदलाव को लेकर राजनीतिक दलों की क्या राय है?

विपक्षी दल आमतौर पर प्रस्तावना में किसी भी प्रकार के बदलाव का विरोध करते हैं, जबकि सत्तारूढ़ दल कभी-कभी ऐतिहासिक सन्दर्भों में परिवर्तन को उचित ठहराते हैं।

5. ‘मूल ढांचा सिद्धांत’ क्या है?

यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित सिद्धांत है जो कहता है कि संविधान के मूल तत्व — जैसे लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता — को संशोधन के जरिए नहीं बदला जा सकता।

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